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कांग्रेस द्वारा दिये गये 'गहरे जख्मों का इलाज करना ही होगा - शिवशरण त्रिपाठी

कानपुर नगर। मंगलवार 10दिसंबर 2024 (लेख-शिवशरण त्रिपाठी) सूर्य दक्षिणायन, मार्गशीर्ष मास शुक्ल पक्ष दसमी, हेमंत ऋतु २०८१ पिंगल नाम संवत्सर। देश बंटवारे से लेकर कल तक कांग्रेस की सरकारों ने कितने घाव दिये है उन्हे याद रखना भी आसान नहीं है। इतिहास साक्षी है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने सनातन धर्म को नेस्तनाबूद करने के लिये कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी। ये तो हमारे पूर्वजों के बलिदान और सनातन धर्म की शक्ति का परिणाम रहा कि सनातन धर्म की लौ जलती रही। 

उम्मीद थी कि देश की आजादी के बाद देश में सनातन धर्म पूर्ववत फ ले फ ूलेगा। मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा ढहाये गये, अतिक्रमित किये गये हिन्दुओं के प्राण खासकर अयोध्या भगवान श्रीराम के मंदिर, काशी के बाबा विश्वनाथ का मंदिर, मथुरा के भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर नये सिरे से भव्यता को प्राप्त कर सकेगें किन्तु ऐसा भी न हो सका। ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट के दखल और मोदी/योगी सरकार तथा संतों के भारी समर्थन के चलते भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर अयोध्या में उनके जन्म स्थान पर बन सका परन्तु काशी का बाबा विश्वनाथ मंदिर का सिर्फ नवीनीकरण ही संभव हो सका जबकि मथुरा की श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पुनर्रोर्द्धार की नौबत ही नहीं आ सकी। 

आखिर इसके लिये कौन जिम्मेदार है? नि:संदेह इसके लिये कुछ सनातन विरोधी सोच वाली सरकारों की तुष्टीकरण की नीति जिम्मेदार रही है। 

यदि ऐसा न होता तो सन् १९९१ में तत्कालीन पी०वी० नरसिम्हाराव की कांग्रेस सरकार ने देश में 'पूजा स्थल कानूनÓ (प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट १९९१ न लागू किया होता।)

इस कानून के अनुसार १५ अगस्त १९४५ से पहले अस्तित्व में आये किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के स्थल में नहीं बदला जा सकता। यदि कोई इस एक्ट का उल्लघंन करने का प्रयास करता है तो जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है। 

यह भी कि १५ अगस्त १९४७ में मौजूद किसी धार्मिक स्थल में बदलाव के विषय में यदि कोई याचिका कोर्ट में विचाराधीन है तो उसे बंद कर दिया जायेगा। 

धारा 3 के अनुसार किसी भी धार्मिक स्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से किसी दूसरे धर्म में बदलने की अनुमति नहीं है। इसके साथ ही यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि एक धर्म के पूजा स्थल को दूसरे धर्म के रूप में ना बदला जाए या फिर एक ही धर्म के अलग खंड में भी ना बदला जाए।

इस कानून की धारा 4(1) कहती है कि 15 अगस्त 1947 को एक पूजा स्थल का चरित्र जैसा था उसे वैसा ही बरकरार रखा जाएगा।

धारा- 4 (2) के अनुसार यह उन मुकदमों और कानूनी कार्यवाहियों को रोकने की बात करता है जो प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट के लागू होने की तारीख पर पेंडिंग थे।

धारा-5 में प्रावधान है कि यह एक्ट रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले और इससे संबंधित किसी भी मुकदमे, अपील या कार्यवाही पर लागू नहीं करेगा।

फि लहाल ये शुभसंकेत है कि एक तरफ जहां मोदी सरकार देश में 'कॉमन सिविल कोडÓ लागू करने की दिशा में प्रयासरत है वहीं वो सनातन विरोधी अन्य कानूनों में भी संशोधन की दिशा में गतिशील है। दूसरी तरफ देश की अदालते भी गंभीर है।

इसी कड़ी में शनिवार को सुप्रीम कोर्ट ने पूजा स्थल अधिनियम १९९१ के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती देने वाली जनहित याचिकाओं की सुनवाई के लिये एक विशेष पीठ का गठन किया है। 

प्रधान न्यायधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ में जस्ट्सि संजय कुमार, केवी विश्वनाथन शामिल होगें। सुनवाई १२ दिसम्बर को हो सकती है। 

जनहित याचिकाओं में पूजा स्थल अधिनियम को चुनौती देते हुये कहा गया है कि यह अधिनियम आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किये गये हिन्दुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों के पूजा स्थलों और तीर्थ स्थलों को पुर्नस्थापित करने का अधिकार छीन लेता है। 

ज्ञात रहे काशी राज परिवार की पुत्री महाराजा कुमारी कृष्ण प्रिया भाजपा नेता डॉ० सुब्रह्मण्यम स्वामी, पूर्व सांसद चिंता मणि मालवीय, सेवा निवृत्त सैन्य अधिकारी अनिल काबोत्रा, अधिवक्ता चंद्रशेखर, वाराणसी निवासी रूद्र विक्रम सिंह, धार्मिक नेता स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती, मथुरा निवासी धार्मिक गुरू देवकीनंदन ठाकुर और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय सहित अन्य ने याचिकाएं दायर की है।

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